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इरादे बाँधता हूँ सोचता हूँ तोड़ देता हूँ
कही ऐसा ना हो जाए कही वैसा ना हो जाए
आज कुछ और नहीं बस इतना सुनो
मौसम हसीन है लेकिन तुम जैसा नहीं
शायरों की बस्ती में कदम रखा तो जाना
गमों की महफिल भी कमाल की जमती है
मुझे मजबूर करती हैं यादें तेरी वरना
शायरी करना अब मुझे अच्छा नहीं लगता
सदाक़त हो तो दिल सीनों से खिंचने लगते हैं वाइ’ज़हक़ीक़त ख़ुद को मनवा लेती है मानी नहीं जाती
तुम से मिल कर इमली मीठी लगती है….
तुम से बिछड़ कर शहद भी खारा लगता है
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